कोलारस जनपद की ग्राम पंचायतों द्वारा स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं -2

Bhopal Samachar

 









1857 की क्रांति में कोलारस 

महू स्थित भारतीय सैनिकों में विद्रोह की भावना उफान पर थी। केप्टन हंगरफोर्ड ने 17 जुलाई को बंगाल सरकार के सचिव को भेजे हुए पत्र में लिखा कि एक जुलाई की सुबह करीब साढ़े आठ या नौ बजे इन्दौर की दिशा में तोपें चलने की आवाज सुनायी दी। ग्यारह बजे कर्नल प्लॉट मेरे पास कर्नल ड्यूरेण्ड का एक नोट लेकर आया जिसमें लिखा था 'जितनी जल्दी मुमकिन हो, यूरोपियन तोपखाना भेज दो, हम पर होल्कर का हमला हुआ है। उसी दिन शाम को हंगरफोर्ड के बहुत आग्रह पर कर्नल प्लॉट ने यूरोपीय महिलाओं और बच्चों को महू के किले में शरण लेने के लिए भेज दिया और तोपखाने के साथ हंगरफोर्ड किले की सुरक्षा के लिए पहुँच गया। प्लॉट ने किले के द्वार की सुरक्षा के लिए अपनी स्वयं की रेजीमेन्ट के पचास सैनिक भी नियुक्त कर दिये।


सुबह 23वीं पैदल सेना के मेस-हाउस को जलते हुए देखा गया और रात 10 बजे के पहले अनेक घरों में विद्रोहियों ने आग लगा दी। रात 10.15 बजे दोनों भारतीय रेजोमेन्टों ने खुला विद्रोह कर दिया। तत्काल कोर के अफसरों ने भागकर किले में शरण ली। उन पर घुड़सवार और पैदल दोनों सैनिकों ने गोलियाँ चलायी। उसी समय प्लॉट किले में आया और उसने हंगरफोर्ड को तोपें बाहर निकालने का आदेश दिया। तोपखाना बाहर निकालने में करीब 10 मिनट लगे, क्योंकि घोड़े चोटिल थे और बहुत से चालक छोड़कर भाग चुके थे। जब तक हंगरफोर्ड तोपखाने के साथ बाहर आया, प्लॉट तथा उसका सहयोगी केप्टन फेगन जा चुके थे।


लाइनों की ओर से तोपखाने पर गोलियाँ बरसाई जा रही थी और परेड मैदान विद्रोही सैनिकों की गोलियों की बौछार से गूँज रहा था। प्लांट 23वीं भारतीय सेना की लाइनों में गये। काये एण्ड मॉलेसन ने "हिस्ट्री ऑफ सिपॉय वार इन इण्डिया" में लिखा है कि- प्लॉट सैनिकों को संबोधित कर जोरदार तकरीर कर रहा था कि उन दोनों को गोली मार दी गयी। छर्रों से छलनी होकर वे गिर गये। उसी समय घुड़सवार सेना का मेजर हेरिस भी मारा गया। इस बीच हंगरफोर्ड वहाँ पहुँच गया। उसे कोई सैनिक नहीं दिखे, परंतु जलते हुए बंगले अवश्य दिखे, जिनमें अफसर रहते थे। उसने तोपों से लाइनों पर गोलाबारी करने का आदेश दिया। परिणामतः वहाँ रहने वाले अपनी संपत्ति छोड़कर भाग खड़े हुए, लेकिन अधिकांश अंग्रेज अधिकारियों ने किले में शरण ले ली तथापि तीन अंग्रेज अफसर कोटन बुक्स, लेफ्टी मार्टिन और चेयरमेन पैदल भागे, लेकिन किले से 100 गज की दूरी पर विद्रोहियों ने उन्हें पकड़ लिया और किले के भीतर खींचकर बुर्ज पर ले गये।


तीन जुलाई को पूरे महू में मार्शल लॉ की घोषणा कर दी गयी। हंगरफोर्ड ने कुछ हथियारबन्द लोगों तथा बचे हुए सैनिक विद्रोहियों को खदेड़ा, अनेक लोग कत्ल कर दिये गये, अन्य पकड़े गये। उसी दिन शाम तक किले के चारों कोनों पर स्थित बुर्जों पर तोपें चढ़ा दी गयी। साथ ही किले के उत्तरी दरवाजे पर बड़ी-बड़ी छह तोपें तैनात कर दी गयी। फिर पाँच तारीख को सुबह अठारह पाउण्ड की चार तोप महू किले के दक्षिणी द्वार पर रख दी गयी। उसी दिन महाराजा तुकोजीराव होल्कर द्वितीय की ओर से होल्कर राज्य के भाऊ रामचंद्र राव रेशमवाले, होल्कर सेना के प्रमुख बख्शी खुमानसिंह तथा महाराजा के एक अफसर केप्टन फेनविक, हंगरफोर्ड से मिलने महू के किले आये। उन्होंने बताया कि महाराजा का अपने विद्रोही सैनिकों पर कोई काबू नहीं रहा और उन्होंने इन्दौर में हुए विद्रोह के लिए अफसोस जाहिर किया। उन्होंने रेसीडेन्सी का बचा हुआ खजाना महू भेजने की भी पेशकश की। सात जुलाई की सुबह हंगर फोर्ड के आदेश पर एक विद्रोही तोपची को किले के उत्तरी दरवाजे पर फाँसी पर लटका दिया। जब फाँसी दी जा रही थी उसी समय रेसीडेन्सी का बचा हुआ खजाना 4,16,690 रुपये और कम्पनी के 23.25 लाख के नोट महू पहुँचे। इन्हें महाराजा ने भेजा था।


महू के क्रांतिकारी इन्दौर के क्रांतिकारी सैनिकों से जा मिले। महू में क्रांतिकारियों का मुखिया मुराद अली खान था। क्रांतिकारी सैनिक, जिसमें महू और इन्दौर दोनों के सैनिक शामिल थे, चार जुलाई को अल सुबह तीन बजे देवास के लिए रवाना हो गये। वे अपने साथ नौ लाख रुपये जो उन्होंने रेसीडेन्सी के खजाने से लूटे थे, तोपें, घोड़े, हाथी, ऊँट, बैलगाड़ियाँ तथा अपना सामान ले गये। महू के सैनिकों ने इन्दौर के कुछ विद्रोही सैनिकों को लूटे गये खजाने में हिस्सेदार नहीं बनाया था। अतः इन्दौर के कुछ सैनिक इस विवाद के कारण वापस इन्दौर लौट गये।


क्रांतिकारी सेना देवास, मक्सी, शाजापुर होती हुई काली सिंध नदी पार करके नौ दिन में 112 मील यात्रा करते हुए, 12 जुलाई को ब्यावरा पहुँची। फिर सेना गुना, पीपल्या, बदरवास, कोलारस, सीपरी पहुँची। कोलारस में उन्हें भोजन पानी के साथ, रास्ते के लिए राशन और कुछ धन भी दिया गया। सीपरी (शिवपुरी) में क्रांतिकारी सेना के नेता सआदत खान ने इन्दौर के एक गुप्तचर से इन्दौर के समाचार ज्ञात किये। सीपरी से सेना 30 जुलाई, 1857 को मुरार पहुँच गयी और एक अगस्त को उसने ग्वालियर में पड़ाव डाला। क्रांतिकारियों का इरादा ग्वालियर की विद्रोही सेना के साथ बहादुरशाह की सेवा में दिल्ली पहुँचना था। वे दिल्ली पहुँचे भी, लेकिन वह एक अलग कहानी है।


इन्दौर-महू की क्रांतिकारी घटनाओं में बलिदान देने वालों का स्मरण किये बिना यह उल्लेख अधूरा रहेगा। महाराजा ने विद्रोह असफल होने के बाद एक अंग्रेज के नेतृत्व में जाँच आयोग बैठाया। आयोग के फैसले पर 21 देशभक्तों को तोप से उड़ाया गया, 11 को गोली मारी गयी, 269 को आजीवन कारावास, 61 को विभिन्न अवधि की कड़ी सजा और 31 सैनिकों को सेवा से बरखास्त कर दिया गया।


इन्दौर के दो प्रमुख क्रांतिकारी नेता सआदत खान और भगीरथ सिलावट इस संघर्ष में शहीद हो गये। भगीरथ अपने सैनिकों के साथ दिल्ली चले गये थे। वहाँ उन्होंने मुगल बादशाह बहादुर शाह से भेंट की थी। उनका एक पत्र महाराज होल्कर के नाम लेकर वे वापस लौटे, लेकिन इन्दौर पहुँचने से पहले ही देपालपुर के मामलतदार ने उन्हें साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया। भगीरथ के पैरों में बेड़ियाँ डाल दी गयी। बाद में देपालपुर के पास की एक पहाड़ी पर उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।


क्रांतिकारियों का प्रमुख सिपहसालार सआदत खान आगरा के पास अंग्रेजों से युद्ध के बाद बच निकला। पहले वह अलवर गया, फिर उज्जैन आकर अकबर खान के नाम से गुप्त रूप से नौकरी करने लगा। फिर वह राजस्थान के बाँसवाड़ा में 13 साल तक अकबर खान के नाम से नौकरी करता रहा। उसने एक बार फिर उज्जैन की ओर रुख लिया। जनवरी, 1874 में उसे बाँसवाड़ा के जंगल में गिरफ्तार कर लिया गया। उसे इन्दौर लाया। गया। उस पर हत्या और देशद्रोह के आरोप में मुकदमा चलाया गया और जैसा कि तय था, 7 सितंबर 1874 को उसे फाँसी की सजा सुना दी गयी।


एक अक्टूबर, 1874 को इन्दौर की क्रांति के इस वीर सेनानी को फाँसी दे दी गयी। शव रेसीडेन्सी परिसर में ही दफना दिया गया। इस प्रकार 17 वर्ष अंग्रेजों की पकड़ से बाहर रहकर अंततः सआदत खान ने अपने प्राणों की आहुति दी।

- लेखक शंभुदयाल गुरू इतिहास के अध्येता है।