एक्सरे ललित मुदगल @ शिवपुरी जिले की एक 11 माह के मासूम की मौत ने एक सवाल खडा कर दिया है कि क्या यह जिंदा इंसान स्वास्थ्य विभाग के लिए नंबर मात्र है,क्या वह एक कागज पर उकेरा गया एक आंकड़ा है। जिंदा इंसान की सबसे पहले जान बचाना आवश्यक है कि सरकारी जिला अस्पताल में पहले पर्चा बनबना। आप सोच रहे होंगे कि पहले इलाज आवश्यक है लेकिन शिवपुरी जिला अस्पताल मे एक मासूम की सांसो की डोर इसलिए टूट गई कि उसकी मॉ तत्काल उसका पर्चा नहीं बनवा सकी। स्वास्थ्य विभाग के 03 अस्पतालों ने उसको इलाज के अभाव रखा,समय पर एंबुलेंस नहीं दी।
सवाल एक 11 साल की मासूम की मौत का है,सवाल बडा है कि अब जिंदा इंसान केवल आंकड़े है,राजनीतिक पार्टियों के लिए जिंदा इंसान केवल एक काउंट वोटर है,सरकार के लिए फिर सरकार में बने रहने के लिए एक जिंदा इंसान सिर्फ एक आकडा है,इसी एक आकडे की मौत ने फिर यह सवाल खडा कर दिया है।
पहले आप एक आंकड़े की मौत से समझने की कोशिश करे
शिवपुरी जिले जिले के कोलारस अनुविभाग के रन्नौद थाना क्षेत्र के गुर्जन गांव निवासी एक 11 माह की मासूम बच्चों ने उपचार और एंबुलेंस के अभाव में रविवार की रात जिला अस्पताल में दम तोड़ दिया। इस पूरे मामले में जिम्मेदारों ने मासूम बच्ची को न तो उपचार उपलब्ध करवाया और न ही एंबुलेंस।
पढिए मां क्यो महान, सिस्टम से लड़ती रही और बेटी मरती रही
ग्राम गुर्जन निवासी मनीषा आदिवासी अपनी 11 माह की जुड़वां बच्चियों को लेकर अपने मायके ग्राम बरखेड़ी रक्षाबंधन मनाने आई थी। बरखेड़ी में शनिवार की रात उसकी एक बेटी की तबीयत खराब हो गई, बारिश के कारण वह बच्ची को लेकर उपचार के लिए नहीं जा सकी।
रविवार की सुबह जैसे ही बारिश थमी तो वह अपनी बच्ची को पास के गांव में एक झोलाछाप डॉक्टर के यहां ले गई। झोलाछाप डाक्टर ने बच्ची को हालत को देखते हुए महिला को लुकवासा स्वास्थ्य जाने की सलाह दी। जब मनीषा बच्ची को लेकर लुकवासा स्वास्थ्य केंद्र पहुंची तो वहां चिकित्सकीय स्टाफ ने बच्ची को उपचार प्रदान करने की बजाय कोलारस जाने की सलाह दी। वहां उपस्थित स्टाफ ने उसको एंबुलेंस की सहायता प्रदान नहीं की,बच्ची को इस त्यौहार के समय भरी भीड़ में कोलारस आना पडा।
सवाल सीधा स्वास्थ्य विभाग के आला अधिकारी से क्या एंबुलेंस उपलब्ध नही थी,अगर नहीं थी तो मौजूदा स्वास्थ्य कर्मी ने इस बच्ची की स्वास्थ्य की गंभीरता को देखते हुए सहायता क्यों नहीं की यहां लुकवासा के स्वास्थ्य कर्मी इस बच्ची की मौत के प्रथम अपराधी है। इनको सजा होनी मिलनी चाहिए। कुछ ऐसा ही कोलारस में बच्ची को देखकर शिवपुरी जिला अस्पताल रवाना कर दिया,फिर मॉ बस के धक्के खाते जिला अस्पताल पहुंची थी।
सांसे तोड़ती बच्ची को उलझा दिया कागजो के गणित में
मनीषा अपनी बच्ची को लेकर रविवार की शाम छह बजे जिला अस्पताल लेकर आई तो डॉक्टरों ने बच्ची की गंभीर हालत को देखते हुए भी पहले उससे कागजी खानापूर्ति पूरी करने के लिए कहा। मनीषा के अनुसार उसे एक घंटा तो पर्चा बनवाने में लग गया, उस समय तक डॉक्टरों ने उसकी बच्ची को देखा तक नहीं। जब वह पर्चा बनवा कर लौटी तब तक बच्चों ने दम तोड़ दिया।
नियमानुसार आदिवासी - मरीज को सबसे पहले जिम्मेदारों को प्राथमिक उपचार मुहैया कराना था और उसे 108 एंबुलेंस उपलब्ध करवानी थी, लेकिन न तो लुकवासा में ऐसा किया गया और न ही कोलारस में। अगर बच्ची को समय पर प्राथमिक उपचार व एंबुलेंस मुहैया करा दी गई होती तो शायद मासूम उल्टी-दस्त जैसी मामूली बीमारी में दम नहीं तोड़ती।
यहां भी सीधा सवाल सिस्टम से
एक मासूम की जब सांसे जब टूट रही थी तो उसे जिला अस्पताल के डॉक्टरों ने इलाज शुरू क्यों नहीं किया,अगर जिला अस्पताल में ड्यूटी डॉक्टर बच्ची से हाथ लगा लेते तो शायद वह समझ जाते कि इस समय बच्ची को कागजों की नही दवाओं की जरूरत है। सबसे पहले जान बचाना काम होता है ना कि कागजों की कार्रवाई करना।
बेटी की मौत के बाद भी खत्म नहीं संघर्ष
मनीषा ने बताया- बेटी की मौत की पुष्टि रविवार की रात 9 बजे की गई। शव को ले जाने की हमारे पास कोई व्यवस्था नहीं थी। न तो गांव के लिए बस थी और न इतने रुपए थे कि निजी वाहन से बच्ची के शव को लेकर रवाना होते। एक दो लोगों से बात की, लेकिन कोई शव लेकर जाने को तैयार नहीं था।
अस्पताल में ड्यूटी स्टाफ से एम्बुलेंस से शव भिजवाने की गुहार लगाई। पहले स्टाफ ने एम्बुलेंस उपलब्ध कराने की बात कही, लेकिन एक घंटे बाद इनकार कर दिया। रात 10 बजे तक यहां-वहां भटकते रहे। मैं बेटी को गोद में लिए रो रही थी। अस्पताल में आए कुछ लोगों ने बेटी के बारे में पूछा तो मैंने उन्हें पूरी बात बताई। इस पर उन लोगों ने चंदा कर मेरी मदद की।
बेटी की लाश सीने से चिपकाकर पैदल चली
जिला अस्पताल से एम्बुलेंस नहीं मिली तो मनीषा अपनी मासूम बेटी की लाश सीने से चिपकाकर पिता के साथ पैदल बस स्टैंड की ओर चल पड़ी। रास्ते में महिला की मदद एक टैक्सी वाले ने की। उसने उसे बस स्टैंड तक पहुंचाया। अब उसे डर था कि बस में लाश लेकर बैठने नहीं दिया जाएगा, इसलिए चादर में मृत बेटी को लपेटकर बस में सवार हुई। बस से वह रात 2 बजे लुकवासा पहुंची। यहां से पैदल अपने गांव पहुंची, जहां परिवार वालों ने रात को ही शव को दफना दिया।