कोलारस जनपद की ग्राम पंचायतों द्वारा स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं -3

Bhopal Samachar










शंकरशाह-रघुनाथशाह


स्वाधीनता संग्राम के बलिदानियों की इसी श्रंखला में विश्व इतिहास में बलिदान का अनूठा उदाहरण है जबलपुर अंचल के राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह का। गोंडवाना के गोंड राजवंश के प्रतापी राजा शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 में जबलपुर क्षेत्र का नेतृत्व किया था। राष्ट्रभक्ति भावपूर्ण कविता लिखने पर राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ा दिया गया था।

वर्तमान में जबलपुर नगर का हिस्सा बना पुरवा ग्राम जो जबलपुर से चार मील दूर स्थित था, इसी गाँव में राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह का निवास था। यहीं रह कर उन्होंने गुप्त रूप से सन् 1857 के महासंग्राम में सैनिकों को क्रांति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था। क्रांति योजना राजा शंकरशाह के निवास पर ही बनी थी। जबलपुर की 52वीं रेजीमेंट के सिपाही इस सिलसिले में अक्सर राजा शंकरशाह के घर जाया करते थे। अपने क्रांतिकारी साथियों और 52वीं रेजीमेंट के सैनिकों के साथ मिलकर पिता-पुत्र ने क्रांति योजना बनाई। मुहर्रम के दिन छावनी पर आक्रमण करना सुनिश्चित किया गया। लेकिन भारतीय इतिहास का नकारात्मक पक्ष पुन: प्रभावी हुआ। देश के गद्दार ने यह सूचना अंग्रेजों तक पहुँचा दी।

गद्दार खुशहाल चन्द के अलावा अन्य दो जमींदारों ने भी गद्दारी की। योजना में सेंध लगी और डिप्टी कमिश्नर ने षडयंत्र रचा। उसने एक तरफ सुरक्षा बढ़ाई, दूसरी ओर सैनिकों के असंतोष के स्त्रोत का पता लगाने के लिए गुप्तचरों का जाल बिछाया, तीसरा राजा शंकरशाह के विरुध्द प्रमाण तलाशना शुरू किया।

सुनियोजित योजना बनाकर फकीर के वेश में एक गुप्तचर राजा के पास भेजा गया। चूंकि सन् 1857 के महासंग्राम में संन्यासी फकीरों की महत्वपूर्ण भूमिका थी अत: राजा ने उस फकीर को क्रांति मार्ग का पथिक माना और अपनी संपूर्ण योजना बता दी। गुप्तचर से सूचना मिलते ही 14 सितम्बर, 1857 को डिप्टी कमिश्नर अपने लाव-लश्कर के साथ राजा शंकरशाह के गाँव पुरवा पहुँचा।

राजा के घर की तलाशी ली गयी। इसमें क्रांति संगठन के दस्तावेजों के साथ राजा शंकरशाह द्वारा लिखित एक कविता मिली।

यह कविता अपनी आराध्य देवी को संबोधित कर लिखी गयी थी। कविता थी-

मूंद मुख डंडिन को चुगलौं को चबाई खाई

खूंद डार दुष्टन को शत्रु संहारिका

मार अंगरेज, रेज कर देई मात चंडी

बचै नाहिं बैरी-बाल-बच्चे संहारिका॥

संकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर

दीन की पुकार सुन आय मात कालका

खाइले मलेछन को, झेल नाहि करौ मात

भच्छन तच्छन कर बैरिन कौ कालिका॥

इसी तरह की प्रार्थना उनके बेटे रघुनाथशाह की हस्तलिपि में भी थी। दोनों क्रांतिवीर पिता-पुत्र को बन्दी बनाकर सैनिक जेल में रखा गया।

तुरंत डिप्टी कमिश्नर और दो अंग्रेज अधिकारियों की एक औपचारिक सैनिक अदालत बैठायी गयी। अदालत में देशद्रोह रूपी कविता लिखने के जुर्म में राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गयी।

दुनिया में साहित्य सृजन को लेकर दी जाने वाली यह अमानवीय, अनोखी सजा थी। क्रांतिकारी राजा और उनके पुत्र को मृत्युदण्ड और फाँसी पर न चढ़ाकर तोप से उड़ाना सुनिश्चित किया गया।

जबलपुर में 18 सितम्बर, 1857 को एजेंसी हाउस के सामने फाँसी परेड हुई। राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को जेल से लाया गया और तोप के मुँह से बांध दिया गया। दोनों के चेहरे आत्म-विश्वास से परिपूर्ण थे। राजा को देखने अपार जन-सैलाब उमड़ पड़ा। भीड़ उत्तेजित थी। राजा शंकरशाह ने आराध्य देवी से प्रार्थना की कि वे उनके बच्चों की रक्षा करें ताकि वे अंग्रेजों का देश निकाला कर सके। शीघ्र ही तोपचियों को तोप दागने की आज्ञा दी गयी। तोप चलते ही दोनों के अंग क्षत-विक्षत होकर चारों ओर बिखर गये।

रानी ने अधजले अवशेष को एकत्र कर उनका विधिवत अंतिम संस्कार किया। अंग्रेज राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ा क्रांति की आग बुझाना चाहते थे लेकिन वह आग बुझी नहीं बल्कि दावानल बन गई। 52वीं रेजीमेंट के सैनिक उसी रात क्रांति की राह पर चल दिए।

क्रांति संघर्ष और बलिदान के बीच अंग्रेजों ने दमन चक्र चलाया और क्रांति की ज्वाला को दबाने का सघन अभियान शुरू किया। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को कुचल देने के बाद भी जनजातियों ने सन् 1866 तक युध्द किया। वीर जनजातियों ने जहाँ प्रत्यक्ष युध्द किया वहीं क्रांतिकारियों को पनाह देकर परोक्ष संघर्ष भी किया। नगरों में असफलता के बाद भी वनों में क्रांति की आग सुलगती रही। अंग्रेजों ने जनजातियों के दमन का अलग ही मार्ग निकाला, उन्हें विभिन्न जातियों में विभाजित कर चोर, लूटेरा घोषित करना शुरू किया। इतिहास साक्षी है अंग्रेजों ने जितनी भी जनजातियों को चोर, लुटेरा घोषित किया, वे सभी घोषणाएँ सन् 1857 के बाद की हैं।

क्षेत्रवार हम देखें तो मध्यप्रदेश में सन् 1857 के मुक्ति संग्राम के विभिन्न केन्द्र थे, जिसमें बुन्देलखण्ड और नर्मदा घाटी में प्रमुख थे सागर, शाहगढ़, गढ़ाकोटा, खुरई, खिमलासा, दमोह, जबलपुर, नरसिंहपुर, मंडला, होशंगाबाद, बैतूल, चंदेरी और छतरपुर। मध्यभारत में ग्वालियर, इन्दौर, धार, अमझेरा, महिदपुर, मन्दसौर, नीमच और खरगौन। भोपाल रियासत में नवाब सिकन्दर बेगम अंग्रेजों के पक्ष में होने के बावजूद सीहोर छावनी स्थित फौज ने क्रांति कर देश की पहली लोकतांत्रिक सरकार, सिपाही बहादुर सरकार की स्थापना की।

जब क्रांति ज्वाला को दबाने का सघन अभियान चलाया गया तब क्रांति के महानायक तात्या टोपे ने लगभग 11 महीनों तक गुरिल्ला युध्द जारी रखा। तब प्रदेश के भील नायकों ने उनके साथ मोर्चा थामा। लेकिन मानसिंह की गद्दारी ने अपना इतिहास रचा और सन् 1857 के महासंग्राम को अस्थाई विराम लगा। संघर्ष, शौर्य और कुर्बानियों का ऐसा उदाहरण इतिहास में कहीं नहीं मिलता।