शिवपुरी। अध्यात्म में बड़ी ताकत होती है,इसका उदाहरण हमें पिछोर विधानसभा के बामौरकलां पंचायत में देखने को मिला। बामौरकलां कस्बे में रहने वाली नन्नू बाई उम्र का बीते रोज 103वां जन्मदिन मनाया गया। पिछले 40 साल से अधिक अध्यात्म के पथ पर चल रही नन्नू बाई ने आजादी की लड़ाई को करीब से देखा है और स्वयं ने विनोबा भावे के आंदोलन से प्रेरित होकर गरीबों को जमींदार से जमीन दान कराई।
यह है जीवन परिचय
नन्नू बाई जैन पति स्व: लख्मीचंद जैन यूपी के ललितपुर जिले के बरौदा स्वामी गांव में ससुराल थी शादी के बाद एक बेटे के जन्म के कुछ समय बाद ही पति की मृत्यु हो गई थी। बेटे को नन्नू बाई ने मात्र 5 साल की उम्र में टीकमगढ़ जिले के पपौरा के गुरुकुल में पढ़ने भेजा था। इस समय परिवार मे कोई नही होने के कारण उस पुराने जमाने मे बिजनेस शुरू कर दिया। नन्नू बाई के पुत्र ग्राम प्रधान प्रकाश चंद जैन ने बताया कि दादी मॉं गांव गांव जाकर सामान बेचने का का काम करती थी,जिसे उस समय की भाषा में बंजी कहते थे सिर पर समान की गठरी को लादकर पैदल पैदल गांव गांव के घरों मे जाना और दैनिक रोजमर्रा का सामान बेचना का काम था। वर्तमान समय में हम इसे फेरी कहते है,इस संघर्ष को पार करते हुए आज दादी का 38 लोगों का भरा पूरा परिवार है।
आचार्य विद्यासागर सागर जी महाराज से हुई दीक्षित
नन्नू बाई पिछले 40 साल से अधिक आध्यात्मिक पथ पर है। आचार्य आचार्य विद्यासागर सागर जी महाराज से नन्नूबाई ने प्रतिमा व्रत लिया था,वर्तमान समय में 7वीं प्रतिमा धारी है। नन्नूबाई सुबह साढे 3 बजे अपना विस्तर छोड देती है इसके बाद अपनी दैनिक चर्या से निवृत होकर पूजा पाठ का क्रम शुरू करती है,नन्नू बाई प्रतिदिन सुबह 6 बजे मंदिर जाती है और 9 बजे वापस आती है,वही शाम को 5 बजे से 6 बजे तक का समय मंदिर में गुजरता है जैन धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय प्रतिदिन करती है और सबसे बडी बात णमोकारी महामंत्र की 108 माला का जाप प्रतिदिन होता है।
मोटा खाना मोटा पहनना यह है लंबी आयु का राज
नन्नूबाई अपने बच्चों से कहती है कि निन्ने पानी जे पिये,हरड़ भूंज कर खाऐ, दूध बयारू जो करे ताके घर वैध ना आए। मोटा खाओ मोटा पीयो के सिद्धांत का पालन करने वाली नन्नू बाई का लंबे जीवन का यही राज है। वह घर में लगी हाथ की चक्की का पिसे आटे की रोटी आज भी कुंए का पानी पीती है और सूती वस्त्रों का उपयोग करती है।
प्रतिमा व्रत के अनुरूप आहार चर्या है इस व्रत में शीतकाल में 7 दिन,ग्रीष्म काल में 5 दिन और वर्षा काल में 3 दिन की मर्यादा का पीसा आटा मसाला आदि ही ग्रहण करती है। प्रतिदिन मंदिर पैदल जाने से लगभग 1 किलोमीटर का वॉक भी हो जाती है। नन्नू बाई के 103 साल की उम्र में दांत नहीं टूटे है और आंखों पर चश्मा नहीं लगा है,धार्मिक ग्रंथों को पढ़ते समय आंखों पर चश्मा नहीं लगाती है।
यह स्मरण दादी अपने बच्चों को अकसर सुनाती थी
"बात 1940 के दशक के अंत की है। भारत स्वतंत्रता की ओर बढ़ रहा था, और समाज में कई बदलाव हो रहे थे। उस समय, मैं सिर्फ 19 साल की थी, और उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव बरोदा स्वामी में अपने छोटे बेटे के साथ रहती थी। मेरे पति का देहांत कुछ समय पहले ही हो चुका था, और मैं अकेली अपने बच्चे की परवरिश कर रही थी।
मेरी दादी ने बचपन से ही मुझे देशभक्ति और समाज सेवा के संस्कार दिए थे। मैं हमेशा उनसे प्रेरित रहती थी, और यही प्रेरणा मुझे भूदान आंदोलन की ओर खींच लाई।
एक दिन, गाँव में चर्चा थी कि विनोबा भावे जी पूरे देश में जमींदारों से जमीन मांग रहे हैं, ताकि वह भूमिहीन किसानों में बांट सकें। यह बात मेरे दिल को छू गई। मैंने सोचा कि अगर मैं भी इस आंदोलन में योगदान कर सकूं, तो यह मेरी देश और समाज के प्रति सच्ची सेवा होगी। लोगों ने मुझे समझाया कि मैं अकेली हूं, मेरा बेटा छोटा है, और इस तरह के बड़े कामों में उलझना मेरे लिए सही नहीं होगा। पर मैं अपने इरादों में अडिग थी। मैंने फैसला कर लिया था कि मैं इस आंदोलन का हिस्सा बनूंगी।
मैंने गांव की औरतों से बात की। हम छोटी-छोटी सभाएं करने लगे, जहाँ हम विनोबा भावे जी के विचारों को साझा करते और लोगों को इस महान कार्य के लिए प्रेरित करते। मैंने गाँव के ज़मींदार से भी भूदान की अपील की। मेरी मासूमियत और दृढ़ संकल्प को देखकर, उन्होंने आखिरकार कुछ भूमि दान कर दी। वह भूमि बाद में भूमिहीन किसानों में बांट दी गई।
उस दिन के बाद से, गाँव में एक नया जोश भर गया। लोग मुझे सम्मान की नजर से देखने लगे। मैं आज भी गर्व से कह सकती हूँ कि मैंने अपने गाँव के लोगों के लिए कुछ किया। भले ही मेरे नाम का कहीं जिक्र न हो, लेकिन गाँव के लोग आज भी मेरी कहानी सुनाते हैं।
दो महामारियों का किया है सामना
अब मेरी उम्र 103 साल हो चुकी है। मैंने जीवन में कई कठिनाइयां देखे हैं। दो महामारियों का सामना किया है, पहले हैजा और फिर COVID-19। पर मैंने कभी हार नहीं मानी। इन बीमारियों से लड़ाई में मैंने कभी भी किसी दवाई का सहारा नहीं लिया, सिर्फ अपने साहस और विश्वास के बल पर इनसे जीत पाई। आज मैं देखती हूँ कि लोग मुझे याद करते हैं, और मेरी कहानी सुनते हैं, तो मेरा दिल गर्व से भर जाता है। मेरे जीवन का संदेश यही है कि अगर हमारे दिल में समाज के लिए कुछ करने का जुनून और साहस हो, तो हम बड़े से बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं।
जीवन ऐसे जिया कि जीवन ग्रंथ बन गया,इस खबर पर मेरा अनुभव
नन्नू बाई अब धरोहर है,उनके जीवन के अनुभव किसी ग्रंथ से कम नहीं है,उन्होंने जीवन ऐस जिया कि अब जीवन ग्रंथ बन गया। नन्नू बाई के जीवन में सबसे बड़ी बात यह है कि वह कभी स्कूल नहीं गई,लेकिन धर्मग्रंथ पढने की चाह मे मंदिर में पढना सीखा,जिस जमाने 1940 से पूर्व में महिला अकेले घर से बाहर नहीं निकलती थी,पति की मृत्यु के बाद घर चलाने के लिए व्यापार शुरू किया।
अपने भाग्य को कोसा नहीं बल्कि श्रीकृष्ण के महावाक्य भाग्य को कर्म बदल सकता इस सूत्र पर नन्नू बाई आगे बढी,अपने बेटे को मात्र 5 साल की उम्र अपने कलेजे से अपने दिल के टूकडे अपने जीवन का एक मात्र आधार अपने इकलौते बेटे प्रकाश चंद जैन को पढने के लिए गुरुकुल भेजा,नन्नूबाई को आभास था कि जीवन में शिक्षा का बडा आभास है,इस कारण ही अपने बेटे को शिक्षित किया,नन्नूबाई के जीवन में दूसरों के लिए कुछ करने का संदेश मिला है,शायद इस कारण ही उन्होंने भूदान आंदोलन में भाग लिया और गरीबों की मदद के लिए आई।
गरीबो की मदद और जीवन ग्रंथ बेटे लिए बनी उपलब्धि
कहा जाता है कि मां के पैरों तले स्वर्ग होता है,संसार में सबसे पहली गुरू मॉ होती है और संसार में सबसे महान है तो वह मां है। नन्नू बाई ने जो गरीबो की हर समय मदद की,स्वयं अपने पैरो पर खडी होकर व्यापार किया। इस कारण ही नन्नूबाई का जीवन दूसरों के लिए दिशा बना,इसका आगे चलकर बेटे को मॉ की विरासत में मिला। नन्नूबाई के बेटे प्रकाश चंद जैन दो बार गांव के ग्राम प्रधान बने,नन्नूबाई के परिवार में अब सदस्यों की संख्या 38 है। कोई डॉक्टर है कोई इंजीनियर है,नारी का आगे बढने की प्रेरणा देने वाली नन्नूबाई के परिवार की कई महिला डॉक्टर है और इंजीनियर है। वर्तमान समय में बामौरकला में रहने वाली नन्नू बाई अपने पोते डॉ सी के जैन के साथ निवास कर रही है। डॉ सी के जैन 30 साल पहले बामौरकला निवास करने आ गए थे।