शेखर यादव शिवपुरी। शिवपुरी शहर के पुरानी शिवपुरी क्षेत्र मे स्थित नीलगर चौराहे से आप सभी परिचित होंगे,यह चौराहा जब अस्तित्व में आया होगा जब पुरानी शिवपुरी में बसाहट शुरू हुई होगी,वर्तमान इस चौराहे पर एक पार्क है जिसे सुभाष पार्क के नाम से जाना जाता है,लेकिन इस स्थान को आज भी नीलगर चौराहा बोला जाता है,आईए चौराहे को नीलगर चौराहा क्यों बोला जाता है इस इतिहास की ओर चलते है।
इस चौराहे पर चार रास्ते आकर मिलले है एक रास्ता काली माता मंदिर से आता है,दूसरा रास्ता विष्णु मंदिर रोड से आता है यह दोनो रास्ते एक सीधी रेखा बनाते है,वही तीसरा रास्ता राजपुरा रोड से आकर इस चौराहे पर खत्म हुआ है और चौथा रास्ता पुरानी शिवपुरी से आकर इस चौराहे पर मिलता है,राजपुरा रोड और राजपुरा रोड एक सीधी रेखा बनाते है।
नीलगर चौराहे की पड़ताल में इस चौराहे की यूनिक हिस्ट्री है। इस चौराहे पर आज से लगभग 100 साल पहले कपड़े रंगने का काम होता था। खासकर पहले राजा महाराजाओं के कपड़े और पगडियों पर रंग होता था। उसके रंगने का काम करते थे। रंगरेज ये केवल कपड़ों पर रंगाई करने का काम किया था।
इनके पेशे के तौर पर यह भारत के अलग अलग जगहों पर स्थापित हो गए आज से लगभग 100 वर्ष पहले राजस्थान से शिवपुरी में आकर बसे गुल मोहम्मद,चिंटू खां,गफूर खां रसुल खां ये सभी कपड़े पर रंगाई करने का काम किया करते थे। पुरानी शिवपुरी में केवल रंगरेजों के 10 परिवार निवासी करते थे। इनका मुख्य काम केवल राजा महाराजाओं की पगडियों बस्त्र को रंगने का काम करते थे। ये इनका पुश्तैनी काम था।
शहर के पुरानी शिवपुरी क्षेत्र में रंगों हुए कपड़े चारों तरफ देखे जा सकते थे। नील से रंगे हुए कपड़े भी काफी अधिक मात्रा में मिलते थे। इस कारण इस क्षेत्र को नीलगर के नाम से जाना जाने लगा फिर आगे चलकर इसके नीलगर चौराहे का नाम दिया गया।आज भी इनके बंशज यहा रहते है। और वे भी कपड़े सिलने और रंग करने का काम करते है।
कौन होते थे रंगरेज
रंगरेज एक फारसी शब्द है जिसका मतलब है, कोई चीज़ को रंगने वाला व्यक्ति या रंगों से खेलने वाला व्यक्ति. हिन्दी में रंगरेज़ का अर्थ है, कपड़े रंगने वाला या रंगने का काम करने वाला व्यक्ति, रंगरेज को नीलगर, छीपा, लीलगर, और दर्जी भी कहा जाता है,कही कही पर मुस्लिम लोग भी कपड़े रंगने का काम करते थे। उत्तर भारत, मध्य भारत, और दक्षिण भारत में रंगरेज़ समुदाय के लोग मुख्य रूप से पाए जाते हैं. रंगरेज़ समुदाय के कई सदस्य आज़ादी के बाद पाकिस्तान चले गए और कराची, सिंध में बस गए, बांग्लादेश और टर्की में भी रंगरेज पाए जाते हैं।