शिवपुरी। चुनाव में सबसे अधिक फैक्टर जातिगत समीकरण का होता है,टिकट बाटकंन के दौरान भी जातिगत समीकरण को सबसे अधिक ध्यान रखा जाता है,शिवपुरी जिले की पांच विधानसभा सीटों पर अगर जातिगत समीकरण की बात की जाए तो प्रत्याशी एक दूसरे के लिए बालि का काम कर रहे थे,अर्थात एक दूसरे का बल आपस में ही खीच रहे थे,वही अगर सन 2018 के विधानसभा की नतीजों की बात की जाए तो तीन सीटों पर हार जीत पांच प्रतिशत से कम अंतर पर हुई थी।
इस बार जिले में पिछले चुनाव की तुलना में इस बार करीब तीन प्रतिशत अधिक मतदान हुआ है। बढ़े हुए मतदान ने प्रत्याशियों की चिंता बढ़ा है। खासतौर पर उन सीटों पर जहां पर हमेशा नजदीकी मुकाबला रहा है। जिले की पांच में से तीन विधानसभा ऐसी हैं जहां पिछली हार-जीत का अंतर पांच प्रतिशत से भी कम रहा है। सबसे नजदीकी मुकाबला कोलारस में देखने को मिला था जहां पर हार-जीत का अंतर सिर्फ 0.42 प्रतिशत ही था। इस बार यहां पर पिछले वर्ष की तुलना में 3.81 प्रतिशत अधिक मतदान हुआ है।
हालांकि यहां पर मुकाबला कड़ा है क्योंकि दो सजातीय प्रत्याशी आमने-सामने हैं और भाजपा और कांग्रेस के दोनों ही प्रत्याशी यादव समाज के होने के कारण एक दूसरे का बल आपस में खीच रहे थे। यादव समाज भी एक तरफा किसी की ओर नहीं गई और ना ही यादव समाज के बहुत लोग खुलकर काम कर पा रहे थे। दोनों ही प्रत्याशी कट्टर सिंधिया समर्थक हैं। बैजनाथ सिंह ने चुनाव के पहले ही सिंधिया का साथ छोड़ा है।
इसी तरह पिछोर में भी पिछले चुनाव में दो प्रतिशत से कम पर हार-जीत तय हो गई थी,पिछोर के इतिहास में इस बार पहली बार हुआ है कि लोधी समाज के प्रत्याशी दोनो मुख्य दलो से चुनाव लड रहे थे,यहां भी समाज के वोटो का बटवारा हुआ है,अगर पिछोर विधानसभा के पिछले चुनावों की बात करे तो लोधी समाज अन्य समाज का मुकाबला होता आता रहा है इस बार हार जीत भी कम वोटों से होगी।
कुछ ऐसी ही स्थिति पोहरी में रही। इन सभी सीटों पर इस बार मतदान बढ़ा है। सत्ता दल के प्रत्याशियों का आकलन है कि लाड़ली बहनों के कारण मतदान बढ़ा है जिसके चलते उन्हें फायदा मिलेगा। वहीं विरोधी दल के प्रत्याशी इसे एंटी इनकंबेंसी से जोड़कर देख रहे हैं। इसका क्या असर रहता है यह तो 3 दिसंबर का परिणाम ही बताएगा।
पोहरी विधानसभा में सन 2018 के विधानसभा चुनाव में 75.73 प्रतिशत मतदान हुआ था जबकि इस वर्ष 78.78 प्रतिशत यानी 3.05 प्रतिशत अधिक। पिछले चुनाव में यहां 4.84 प्रतिशत का अंतर रहा। विजेता सुरेश राठखेड़ा को 37.06 प्रतिशत और उनके निकटतम प्रतिद्वंदी कैलाश कुशवाह को 32.22 प्रतिशत मत मिले थे। इस बार भी यही दोनों प्रत्याशी मैदान में हैं, लेकिन बसपा से प्रद्युम्न वर्मा के खडे होने के कारण उन्होने सुरेश राठखेडा के लिए बाली का काम किया समाज के वोटो का बंटवारा कर दिया।
पिछोर- इस सीट पर जिले में सबसे अधिक मतदान होता है। पिछले वर्ष यहां 84.25 प्रतिशत और इस वर्ष रिकार्ड 85.42 प्रतिशत मतदान हुआ है। पिछले वर्ष यहां हार-जीत का अंतर सिर्फ 1.37 प्रतिशत रहा था जिसमें विजेता केपी सिंह को 47.06 प्रतिशत और उनके निकटतम प्रतिद्वंदी प्रीतम लोधी को 45.69 प्रतिशत मत मिले थे। इस बार यहां से केपी सिंह चुनाव नहीं लड़ रहे हैं और उन्होंने अपने समर्थक अरविंद लोधी को टिकट दिलवाया है।
कोलारस- पिछले चुनाव में सबसे नजदीकी मुकाबला इसी सीट पर हुआ था और 700 वोटों ने हार-जीत तय कर दी थी। इस बार यहां पिछले वर्ष के मुकाबले अधिक मतदान हुआ है और मुकाबला कड़ा है। यहां यदि लाड़ली बहना फैक्टर ने काम नहीं करा तो भाजपा के प्रत्याशी महेंद्र यादव के लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है।
कार्यकर्ताओं का मन टटोल रहे प्रत्याशी
अब प्रत्याशी जनता के बीच से गायब हैं और उनके इंटरनेट मीडिया अकाउंटों पर भी सन्नाटा पसरा हुआ है। चुनाव खत्म होने के साथ ही प्रत्याशी चुनावी थकान मिटाने के बजाए पोलिंग एजेंट और कार्यकर्ताओं से चर्चा कर रहे हैं कि उनके समीकरण सही बैठे या नहीं। हालांकि हर प्रत्याशी के पास अपनी जीत का पूरा आंकड़ा है, लेकिन फैसला जनता ने ईवीएम में सुरक्षित कर दिया है।